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जीवन कहानी

मैं यहोवा की दिखायी राह पर चला

मैं यहोवा की दिखायी राह पर चला

जब मैं नौजवान था, तो मैंने सोच लिया था कि मैं दुनिया में अपना करियर बनाऊँगा और मुझे अपना काम भी बहुत पसंद था। पर फिर यहोवा ने मुझे एक दूसरी राह दिखायी। उसने मुझसे कहा, “मैं तुझे अंदरूनी समझ दूँगा, उस राह पर चलना सिखाऊँगा जिस पर तुझे चलना चाहिए।” (भज. 32:8) जब मैंने उस राह पर चलना शुरू किया, तो मैं अलग-अलग तरीकों से यहोवा की सेवा कर पाया। मैंने 52 साल तक अफ्रीका में भी सेवा की। यहोवा की सेवा को अपना करियर बनाकर मुझे ढेरों आशीष मिली हैं।

इंग्लैंड से अफ्रीका तक का सफर

मेरा जन्म 1935 में इंग्लैंड के डार्लसटन शहर में हुआ था। यह शहर जिस इलाके में पड़ता है, उसे “काला देश” कहा जाता था क्योंकि वहाँ इतनी फैक्ट्रियाँ थीं कि हवा में हमेशा काला धुआँ छाया रहता था। जब मैं करीब चार साल का था, तो उस वक्‍त मेरे माता-पिता यहोवा के साक्षियों के साथ बाइबल अध्ययन करने लगे। जब मैं 14-15 साल का हुआ, तो मुझे यकीन हो गया की यही सच्चाई है और 1952 में 16 साल की उम्र में मैंने बपतिस्मा ले लिया।

उसी दौरान मैं एक बड़ी फैक्टरी में जाने लगा जहाँ औज़ार और गाड़ियों के पुरज़े बनाए जाते थे। मैं वहाँ के ऑफिस में एक बड़ी पोस्ट सँभालने की ट्रेनिंग लेने लगा। मुझे उस काम में बहुत मज़ा आ रहा था।

फिर एक बार एक सफरी निगरान ने मुझसे कहा कि मैं हफ्ते के बीच विलनहॉल में अपनी मंडली में पुस्तक अध्ययन चलाऊँ। पर एक दिक्कत थी। मैं हफ्ते के बीच विलनहॉल में सभाओं के लिए नहीं जाता था। मैं अपने घर से करीब 32 किलोमीटर (20 मील) दूर ब्रोम्सग्रोव में काम करता था और हफ्ते के बीच वहीं सभाओं में जाता था। हफ्ते के आखिर में ही मैं वापस विलनहॉल में अपने घर आता था और तब वहाँ सभाओं में जाता था।

मैं यहोवा की और ज़्यादा सेवा करना चाहता था, इसलिए मैंने सफरी निगरान को हाँ कह दिया। इसके लिए मुझे अपना काम छोड़ना पड़ा जो मुझे बहुत पसंद था। लेकिन मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है। उस वक्‍त मैंने यहोवा की दिखायी राह पर चलने का फैसला किया और इससे मेरी ज़िंदगी खुशियों से भर गयी।

जब मैं ब्रोम्सग्रोव मंडली में जाया करता था, तब मेरी मुलाकात ऐन नाम की एक बहन से हुई। वह बहुत खूबसूरत थी और जोश से यहोवा की सेवा करती थी। सन्‌ 1957 में हमने शादी कर ली। हमने मिलकर कई तरीकों से यहोवा की सेवा की। जैसे हमने साथ में पायनियर सेवा की, खास पायनियर सेवा की, सफरी काम किया और बेथेल में भी सेवा की। ऐन मेरी ज़िंदगी में खुशियों की बहार ले आयी!

सन्‌ 1966 में जब हमें गिलियड की 42वीं क्लास में बुलाया गया, तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। स्कूल खत्म होने के बाद हमें मलावी भेजा गया। हमने सुना था कि वहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं और मेहमानों की खूब खातिरदारी करते हैं। पर हमें नहीं पता था कि बहुत जल्द हमें वह देश छोड़ना पड़ेगा।

मलावी में मची हलचल

मलावी में सफरी काम करते वक्‍त हम इस जीप में आया-जाया करते थे

एक फरवरी, 1967 को हम मलावी पहुँचे। शुरू का एक महीना तो भाषा सीखने में ही निकल गया। उसके बाद मैंने ज़िला निगरान के तौर पर सेवा करना शुरू किया। हमारे पास आने-जाने के लिए एक बड़ी जीप थी। लोग कहते थे कि आपकी जीप तो कहीं भी जा सकती है, नदियाँ भी पार कर सकती है। ऐसा तो नहीं था, लेकिन हम उसे थोड़े-बहुत पानी में से निकाल लेते थे। कभी-कभी हमें झोंपड़ियों में रहना पड़ता था और बारिश के मौसम में छत पर तिरपाल डालना पड़ता था ताकि पानी अंदर ना आए। इस तरह हमारी मिशनरी सेवा की बड़ी मज़ेदार शुरूआत हुई!

करीब दो महीने बाद अप्रैल में हालात बदलने लगे। ऐसा लगने लगा कि सरकार यहोवा के साक्षियों के खिलाफ हो रही है। मैंने रेडियो पर मलावी के राष्ट्रपति डॉक्टर हेस्टिंग्स बांदा का भाषण सुना जिसमें उसने साक्षियों के बारे में बहुत-सी झूठी बातें कहीं। उसने कहा कि यहोवा के साक्षी टैक्स नहीं देते और राजनैतिक मामलों में भी दखल देते हैं। ये सब बातें सच नहीं थीं। असल में वह हमसे इसलिए नाराज़ था कि हमने राजनैतिक मामलों में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था और हम उसकी पार्टी का कार्ड भी नहीं खरीद रहे थे।

सितंबर में हमने अखबार में पढ़ा कि राष्ट्रपति ने यहोवा के साक्षियों पर यह इलज़ाम लगाया है कि वे देश-भर में मुश्‍किलें खड़ी कर रहे हैं। उसने एक राजनैतिक सम्मेलन में घोषणा की कि सरकार बहुत जल्द यहोवा के साक्षियों के काम पर रोक लगा देगी। फिर 20 अक्टूबर, 1967 को हमारे काम पर रोक लगा दी गयी। थोड़े ही समय बाद पुलिसवाले और कुछ अफसर शाखा दफ्तर पहुँच गए ताकि उसे बंद कर दें और मिशनरी भाई-बहनों को देश से निकाल दें।

सन्‌ 1967 में हमें और हमारे साथ मिशनरी सेवा करनेवाले भाई जैक योहानसन और उनकी पत्नी लिंडा को गिरफ्तार कर लिया गया और मलावी से निकाल दिया गया

हमें तीन दिन तक जेल में रखा गया। फिर हमें मॉरीशस भेज दिया गया जहाँ उस वक्‍त ब्रिटेन का राज था, लेकिन वहाँ के अधिकारियों ने हमसे कहा कि हम वहाँ मिशनरियों के तौर पर नहीं रह सकते। तब संगठन ने हमें ज़िम्बाबवे जाने को कहा जिसे उस वक्‍त रोडेशिया कहा जाता था। जब हम वहाँ पहुँचे, तो एक खड़ूस-से अफसर ने हमें देश में घुसने से रोक दिया। उसने कहा, “मलावी से तो तुम्हें निकाल दिया और मॉरीशस में भी नहीं रहने दिया। इसलिए अब यहाँ आ गए हो?” यह सुनकर ऐन रो पड़ी। ऐसा लग रहा था कि अब हम कहीं के नहीं रहे। एक बार को तो मन किया कि सबकुछ छोड़-छाड़कर इंग्लैंड चले जाएँ, लेकिन फिर अधिकारी मान गए और हमें एक रात शाखा दफ्तर में रुकने की इजाज़त दे दी। मगर उन्होंने कहा कि अगले दिन हमें उनके दफ्तर आना पड़ेगा। हम थककर चूर हो गए थे, लेकिन हमें भरोसा था कि यहोवा हमें सँभालेगा। इसलिए हमने सबकुछ उसके हाथ में छोड़ दिया। अगले दिन दोपहर को कमाल हो गया! अफसरों ने कहा कि हम ज़िम्बाबवे में रह सकते हैं। वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता! मुझे पक्का यकीन हो गया कि यहोवा हमें राह दिखा रहा है।

ज़िम्बाबवे से की मलावी की देखरेख

सन्‌ 1968 में ऐन के साथ ज़िम्बाबवे बेथेल में

ज़िम्बाबवे शाखा दफ्तर में मुझे सेवा विभाग में काम करने को कहा गया। मैं वहाँ मलावी और मोज़ांबीक में हो रहे काम की देखरेख करता था। उस वक्‍त मलावी में भाइयों पर बहुत ज़ुल्म किए जा रहे थे। वहाँ के सर्किट निगरान जो रिपोर्ट भेजते थे, मैं उनका अनुवाद भी किया करता था। एक बार मैं देर रात तक काम कर रहा था और एक ऐसी ही रिपोर्ट तैयार कर रहा था। जब मैंने पढ़ा कि मलावी के भाई-बहनों को कितनी बुरी तरह सताया जा रहा है, तो मैं अपने आँसू रोक नहीं पाया। * पर इस सबके बावजूद उन्हें यहोवा पर पूरा विश्‍वास था और वे उसके वफादार बने हुए थे। यह बात मेरे दिल को छू गयी।​—2 कुरिं. 6:4, 5.

इन ज़ुल्मों से बचने के लिए कई भाई-बहन मोज़ांबीक भाग गए थे, लेकिन हमारी पूरी कोशिश थी कि उन तक और मलावी में रहनेवाले भाई-बहनों तक प्रकाशन पहुँचते रहें। मलावी में चिचेवा भाषा सबसे ज़्यादा बोली जाती है, इसलिए इस भाषा का अनुवाद काम जारी रखने के लिए चिचेवा भाषा के अनुवादकों को ज़िम्बाबवे बुला लिया गया। ज़िम्बाबवे में एक भाई के पास एक बड़ा खेत था। वहाँ उसने अनुवाद टीम के लिए ऑफिस और घर बनाए। इस तरह चिचेवा भाषा में प्रकाशनों का अनुवाद होता रहा।

हम हर साल इंतज़ाम करते थे कि मलावी के सर्किट निगरान ज़िम्बाबवे आ सकें और चिचेवा भाषा के ज़िला अधिवेशन में हाज़िर हो सकें। वहाँ उन्हें अधिवेशन के भाषणों की आउटलाइन दी जाती थी ताकि वे मलावी लौटकर भाई-बहनों को अधिवेशन में सीखी बातें बता सकें। एक बार जब सर्किट निगरान अधिवेशन के लिए ज़िम्बाबवे आए हुए थे तो हमने उनकी हिम्मत बँधाने के लिए राज-सेवा स्कूल का इंतज़ाम भी किया।

ज़िम्बाबवे में चिचेवा और शोना भाषा के अधिवेशन में चिचेवा में भाषण देते हुए

फरवरी 1975 में मैं मोज़ांबीक में उन भाई-बहनों से मिलने गया जो मलावी से भागकर वहाँ आ गए थे। वे संगठन से मिलनेवाले सारे निर्देश मान रहे थे। और कुछ वक्‍त पहले प्राचीनों का निकाय बनाने के लिए जो हिदायत दी गयी थी, उन्होंने उसे भी माना था। कई प्राचीन हाल ही में नियुक्‍त हुए थे और उन्होंने भाई-बहनों के लिए बहुत-से इंतज़ाम किए थे, जैसे वे जन-भाषण देते थे, भाई-बहनों के साथ रोज़ाना वचन और प्रहरीदुर्ग  पर चर्चा करते थे, यहाँ तक कि सम्मेलन भी रखते थे। उन भाई-बहनों के पास पक्के घर तो नहीं थे, पर वे बहुत कायदे से रह रहे थे। ठीक जैसे अधिवेशनों में साफ-सफाई के लिए, खाना बाँटने के लिए और सुरक्षा के लिए अलग-अलग विभाग होते हैं, उन्होंने भी ऐसे ही कुछ इंतज़ाम कर रखे थे। मैं देख सकता था कि यहोवा इन वफादार भाई-बहनों को कितनी आशीषें दे रहा है। मैं बता नहीं सकता कि उनसे मिलकर मेरा कितना हौसला बढ़ा!

सन्‌ 1980 के आते-आते, ज़ाम्बिया का शाखा दफ्तर मलावी में होनेवाले काम की देखरेख करने लगा। लेकिन तब भी मैं अकसर मलावी के भाई-बहनों को याद करता था और उनके लिए प्रार्थना करता था। कई दूसरे भाई-बहन भी ऐसा करते थे। उस वक्‍त तक मैं ज़िम्बाबवे शाखा-समिति का सदस्य बन चुका था। इसलिए कई बार जब विश्‍व मुख्यालय से प्रतिनिधि दौरा करने आते थे तो उस वक्‍त मलावी, दक्षिण अफ्रीका और ज़ाम्बिया में ज़िम्मेदारी सँभालनेवाले भाइयों से मेरी मुलाकात होती थी। हर बार हम इस बारे में ज़रूर चर्चा करते थे कि मलावी के भाई-बहनों के लिए और क्या किया जा सकता है।

समय के चलते मलावी के भाई-बहनों पर जो ज़ुल्म हो रहे थे, वे कम होने लगे और जो भाई-बहन वहाँ से भाग गए थे, वे वापस आने लगे। आस-पास के कई देशों ने साक्षियों को कानूनी मान्यता दे दी और हमारे काम पर लगी पाबंदी हटा दी। सन्‌ 1991 में, हमें मोज़ांबीक में भी उपासना करने की आज़ादी मिल गयी। पर हम यही सोचते रहते थे कि मलावी में लगी रोक कब हटेगी।

वापस मलावी में

कुछ समय बाद मलावी में भी हालात बदल गए और 1993 में सरकार ने यहोवा के साक्षियों के काम पर लगी रोक हटा दी। एक दिन मेरी एक मिशनरी भाई से बात हो रही थी और उस भाई ने मुझसे पूछा, “तो अब आप मलावी वापस चले जाएँगे?” उस वक्‍त मैं 59 साल का था। मैंने कहा, “अब कहाँ, अब तो उम्र हो गयी है!” पर उसी दिन हमें शासी निकाय से एक फैक्स मिला जिसमें उन्होंने कहा कि हम मलावी वापस जा सकते हैं।

ज़िम्बाबवे छोड़कर जाना हमारे लिए आसान नहीं था। हमें वहाँ सेवा करते हुए कई साल हो गए थे और वहाँ हमारे कई सारे दोस्त भी बन गए थे। हम वहाँ बहुत खुश थे। और शासी निकाय ने भी कहा था कि हम चाहें तो ज़िम्बाबवे में ही सेवा करते रह सकते हैं। इसलिए हम वहाँ रुक सकते थे। लेकिन हमने खुद अपनी राह नहीं चुनी। हमने सोचा कि अब्राहम और सारा ने भी तो यहोवा की सुनी थी और बुढ़ापे में अपना घर-बार छोड़ दिया था।​—उत्प. 12:1-5.

हमने यहोवा के संगठन के निर्देश को माना और 1 फरवरी, 1995 को मलावी पहुँच गए। अट्ठाईस साल पहले हमने ठीक इसी दिन मलावी में पहली बार कदम रखा था। वहाँ एक शाखा समिति बनायी गयी जिसमें मैं और दो और भाई थे। जल्द ही हम यहोवा की उपासना से जुड़े कामों को दोबारा शुरू करने में जुट गए।

यहोवा की आशीष से हुई तरक्की

यहोवा की आशीष से मलावी में प्रचारकों की गिनती तेज़ी से बढ़ने लगी। सन्‌ 1993 में वहाँ 30,000 प्रचारक थे, लेकिन 1998 में वे बढ़कर 42,000 हो गए। * इस बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुए शासी निकाय ने एक नया शाखा दफ्तर बनाने की मंज़ूरी दे दी। हमने लीलोंग्वे शहर में 30 एकड़ (12 हेक्टर) की एक ज़मीन खरीदी। और मुझे निर्माण समिति के साथ काम करने के लिए कहा गया।

कुछ ही समय में नया शाखा दफ्तर बनकर तैयार हो गया और मई 2001 में शासी निकाय के सदस्य भाई गाइ पीयर्स समर्पण भाषण देने आए। उस मौके पर 2,000 से भी ज़्यादा भाई-बहन हाज़िर हुए, जिनमें से कई तो 40 से भी ज़्यादा सालों से यहोवा की सेवा कर रहे थे। एक वक्‍त पर जब हमारे काम पर रोक लगी हुई थी, तब इन भाई-बहनों ने सालों तक कई ज़ुल्म सहे थे। उनके पास पैसे भले ही कम थे, पर आशीषों की कोई कमी नहीं थी! यहोवा के साथ उनका बहुत मज़बूत रिश्‍ता था। नए बेथेल का दौरा करके उन्हें बहुत खुशी हो रही थी। वे सभी अफ्रीकी अंदाज़ में राज-गीत गा रहे थे और बेथेल का कोना-कोना उनके गीतों से गूँज रहा था! मैंने आज तक ऐसा नज़ारा नहीं देखा। सच में, जो मुश्‍किलों में भी यहोवा के वफादार रहते हैं, उन्हें वह ढेरों आशीषें देता है!

मलावी में शाखा दफ्तर के निर्माण के अलावा कई सारे राज-घरों का निर्माण भी किया जाने लगा। और मुझे कई राज-घरों का समर्पण भाषण देने का मौका मिला। हमारे संगठन ने इंतज़ाम किया है कि जिन देशों में भाई-बहनों के पास ज़्यादा पैसे नहीं हैं, वहाँ कम साधनों में और कम समय में राज-घर बनाए जा सकते हैं। मलावी में इसी तरह से राज-घर बनाए जा रहे थे। पहले वहाँ यूकेलिप्टस के पेड़ों से राज-घर बनाए जाते थे। उनकी छत घास-फूस से बनी होती थी और वहाँ बैठने के लिए मिट्टी की बेंच होती थीं। पर अब भाई भट्ठियों में ईंटें बनाने लगे। उन्होंने बहुत मेहनत की और सुंदर-सुंदर राज-घर बनाए। पर बैठने के लिए उन्हें बेंच ही पसंद थी। वे कहते थे, ‘बेंच पर तो जगह कभी कम नहीं पड़ती!’

मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि भाई-बहन किस तरह यहोवा की सेवा को पहली जगह दे रहे हैं और वह उनकी मदद कर रहा है। मुझे खासकर वहाँ के जवान भाइयों को देखकर बहुत अच्छा लगा जो खुद आगे बढ़कर यहोवा की सेवा कर रहे थे। उन्हें संगठन से जो भी ट्रेनिंग दी जा रही थी, वे उसको तुरंत मान रहे थे। इस वजह से वे बेथेल और मंडलियों में और भी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने के काबिल बन पाए। कई भाइयों को सर्किट निगरान भी नियुक्‍त किया गया जिससे मंडलियों को बहुत फायदा हुआ। उनमें से कई शादीशुदा थे और उनके घरवाले और समाज के लोग उन पर दबाव डालते थे कि वे अपना परिवार बढ़ाएँ। पर वे यहोवा की और ज़्यादा सेवा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वे बच्चे नहीं करेंगे।

सही राह चुनने से मिली खुशियाँ

ऐन के साथ ब्रिटेन बेथेल में

हमें अफ्रीका में सेवा करते हुए 52 साल हो गए थे। फिर मेरी तबियत थोड़ी बिगड़ने लगी। इसलिए शाखा-समिति ने शासी निकाय से पूछा कि क्या हम ब्रिटेन वापस जा सकते हैं। शासी निकाय ने इसकी मंज़ूरी दे दी। इसलिए हम वापस ब्रिटेन आ गए। अफ्रीका छोड़ते हुए हमें बहुत दुख हो रहा था, क्योंकि उस जगह से और वहाँ के लोगों से हमें बहुत लगाव हो गया था। लेकिन ब्रिटेन बेथेल के भाई-बहन हमारी बहुत अच्छे से देखभाल कर रहे हैं।

मैंने यहोवा की दिखायी राह पर चलने का फैसला किया और मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है। अगर मैंने अपनी समझ का सहारा लिया होता और दुनिया में अपना करियर बनाया होता, तो पता नहीं मेरा क्या होता। लेकिन यहोवा जानता था कि मुझे किस राह पर चलना चाहिए और उसने मुझे वह ‘राह दिखायी।’ (नीति. 3:5, 6) शुरू-शुरू में जब मैं एक बड़ी कंपनी में काम सीख रहा था, तो मुझे बहुत मज़ा आ रहा था। लेकिन हमारा संगठन तो उससे भी बड़ा है। और जब मैंने यहोवा की सेवा को अपना करियर बनाया, तो मुझे कहीं ज़्यादा खुशी मिली! यहोवा की राह पर चलने से मुझे हर कदम पर आशीषें मिली हैं!

^ मलावी में यहोवा के साक्षियों के इतिहास के बारे में 1999 यहोवा के साक्षियों की सालाना किताब के पेज 148-223 (अंग्रेज़ी) पर बताया गया है।

^ आज मलावी में 1,00,000 से ज़्यादा प्रचारक हैं।